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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

व्याख्या भाग

प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)

(1)

मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परैं स्यामु हरित दुति होइ॥1॥
शब्दार्थ - झांइ = परछाई, झाँकी, झलक। स्यामु = श्रीकृष्ण, श्याम रंग। हरित दुति = प्रसन्न होना, हरे रंग वाला।

प्रसंग - यह 'बिहारी सतसई' का प्रारम्भिक दोहा है और मंगलाचरण के रूप में लिखा गया है। इसमें बिहारी शृंगार की अधिष्ठात्री देवी तथा कृष्ण प्रिया राधा की वन्दना कर रहे हैं। इस दोहे के अनेक अर्थ हैं।

व्याख्या -

(1) कविवर बिहारी कहते हैं कि हे चतुर राधिके ! मेरे कष्टों का निवारण करो। जिन राधिका जी के शरीर की झलक पड़ते ही भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्नचित्त हो जाते हैं।
(2) वे चतुर राधा जी हमारी सांसारिक बाधाओं को दूर करें जिनके शरीर की परछाई को देखकर श्रीकृष्ण जी हरे-भरे या प्रसन्न हो जाते हैं।
(3) वे चतुर राधिका जी सांसारिक कष्टों को दूर करें जिनके ध्यान करने मात्र से सारे पाप एवं दुख स्वतः दूर हो जाते हैं।
(4) वे चतुर राधिका हमारे क्लेशों को दूर करें जिनकी आभा पड़ने तथा श्रीकृष्ण जी के श्याम रंग में मिलने पर हरीतिमा निकलने लगती है। जो प्रसन्नता का द्योतक है। राधा का गोरे वर्ण तथा श्रीकृष्ण का श्याम वर्ण दोनों के मिश्रण से हरा रंग बन जाता है। इसलिए कवि ने 'हरित दुति का प्रयोग किया है।

विशेष -

(क) इस दोहे में बिहारी के राधा वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित होने का संकेत मिलता है।
(ख) प्रस्तुत दोहा मंगलाचरण के रूप में लिखा गया है। जिसकी शैली आशीर्वादात्मक तथा स्वरूप वस्तु निर्देशात्मक है।
(ग) प्रस्तुत छन्द में दोहा नामक छन्द का प्रयोग किया गया है।
(घ) उपर्युक्त सभी अर्थों में कवि ने क्रमशः राधा के पीत वर्ण राधाकृष्ण के प्रेमाधिक्य और राधा की भक्त वत्सलता की ओर संकेत किया है।
(ङ) हरित - दुति मुहावरे का प्रयोग कई प्रकार से तथा सार्थक ढंग से किया गया है तथा इसका काव्यात्मक सौन्दर्य बड़ा ही आकर्षक है।

(2)

सनि-काल चख झख लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु।
क्यौं न नृपति है भोगवै लहि सुदेसु सबु देहु॥5॥

 

शब्दार्थ - सनि = शनि नामक एक ग्रह (ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनि ग्रह का रंग काला माना जाता है)। कज्जल = काजल। चख = चक्षु। झख = मछली। लगन = लग्न, मिला रहता है। सुदिन = ज्योतिष की दृष्टि से सानुकूल दिन, शुभ दिन। सनेहु = प्रेम। छै = होकर = भौगवै भोग करे। लहि = लेकर। सुदेसु = सुन्दर सुखद देश।

प्रसंग - नायक-नायिका के काजल से सुशोभित नेत्रों के आकर्षण में डूब गया। उसने नायिका की अन्तरंग सखि को मिलने का माध्यम बनाकर नायिका के पास भेजा। वह दूती नायिका के मन को नायक के प्रति आकर्षित करते हुए उसके नेत्रों की प्रशंसा करती हुई कह रही है।

व्याख्या - दूती नायिका के मन में नायक के प्रति प्रेम-भाव उत्पन्न करके उसे नायक से मिलने को प्रेरित करती हुई कहती है कि तेरे चक्षु रूपी मीन लग्न में काजल रूपी शनि ग्रह की स्थिति पड़ जाने से, इस अत्यन्त अनुकूल एवं शुभ अवसर में तेरे मन में नायक के प्रति स्नेह रूपी बालक का जन्म हुआ है। तो अब यह बालक अर्थात् तेरा स्नेह नायक की सम्पूर्ण देहरूपी सुन्दर देश पर अधिकार करके राजा के समान उसका उपभोग क्यों नहीं करता है?

तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनि और मीन नक्षत्रों के मीन लग्न में मिल जाने वाले शुभ लग्न में उत्पन्न होने वाला बालक सम्राट होने का योग प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार मीन (मछली) जैसे नेत्रों में काजल (काले रंग वाले शनि ग्रह) के मिल जाने पर उत्पन्न होने वाला स्नेह राजा की भाँति भोग करने का योग प्राप्त कर लेने वाला हो गया है।

विशेष -
(क) प्रस्तुत दोहे में बिहारी के ज्योतिष - ज्ञान का परिचय मिलता है।
(ख) प्रस्तुत दोहे में कवि ने मुग्धा नायिका के नेत्र - सौन्दर्य का वर्णन किया है।
(ग) शास्त्रीय दुरुहता के कारण भाव-सौन्दर्य के विकास में बाधक हुआ है।
(घ) अलंकार - काकुवक्रोक्ति, सम, अभेद रूपक।

 

(3)

जुवति जोन्ह मैं मिलि गई, नैंक न होति लखाइ।
सौंधे कैं डोरैं लगी अली चली सँग जाइ॥7॥

शब्दार्थ - जुवति = युवती। जोन्ह = जुन्हाई, चाँदनी। सौधें = सुगन्ध। अली = सखी, भँवरे। लखाइ = लक्षित दिखाई देना।

प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में शुक्लाभिसारिका नायिका का वर्णन है।

व्याख्या - यह गौरांगना युवती (अपने और द्युति के कारण) चाँदनी में ऐसी मिल गई कि जरा भी दिखाई ही नहीं देती है। केवल उसके अंगों के सुगन्ध के सहारे भँवरे तथा उसकी सखी उसके साथ- साथ चली जा ही है। भाव यह है कि जिस प्रकार से सुगन्ध से वशीभूत होकर भौंरा (अलि) सुगन्ध के साथ-साथ दौड़ पड़ता है। उसी प्रकार से सुगन्धित पदार्थों (अंगराग, पुष्प आदि) से सज्जित नायिका के पीछे उसकी सखी (अली) चल रही है। मानो यह सुगन्धि मार्गदर्शक रज्जु डोरी का काम कर रही है। अन्यथा चन्द्रवदनी नायिका तो चाँदनी में इस प्रकार लुप्त हो जाती है। कि उसका पता नहीं चल पाता।

विशेष -
(क) अलंकार - उन्मीलित पूरे दोहे में। भ्रान्तिमान द्वितीय चरण (उसको कमल समझकर भौंरे उसके साथ लग गये हैं), श्लेष - अली। छेकानुप्रास - जुबति जोन्ह। पदमैत्री - अली चली।
(ख) पहली पंक्ति में कवि प्रौढोक्ति सिद्ध वस्तु से यह वस्तु व्यंजना की गयी है कि नायिका शुक्लाभिसारिका ही नहीं पधिनी नायिका है। गन्ध की व्यंजना स्वभावोक्ति है। यहाँ वर्णोचित्य भी प्रकट किया गया है।

 

(4)

पिय-बिछुरन कौ दुसहु दुखु, हरषु जात प्यौसार।
दुरजोधन लौं देखयति तजत प्रान इहि बार॥15॥

शब्दार्थ - प्यौसार = बाप का घर, मायका। देखियत = देखी जाती है। इहिबार = इस बार।

प्रसंग - मध्या नायिका अपने मायके जा रही है। मायके (नैहर) जाने से जहाँ एक ओर से हर्ष हो रहा है वही दूसरी ओर प्रियतम से बिछुड़ने का दुःख (पीड़ा) हो रहा है। नायिका की इसी स्थिति का वर्णन एक सखी दूसरी सखी से कर रही है।

व्याख्या - मायके जाते समय, माँ-बाप, भाई-बहिन आदि को मिलने की आशा से एक ओर तो नायिका के मन में हर्ष हो रहा है। और दूसरी ओर प्रियतम से बिछुड़ने का दुःख उससे सहन नहीं हो पा रहा है। इस बार मायके जाते समय दुर्योधन की भाँति उसकी दशा प्राणों को त्यागने जैसी हो रही है।

विशेष -
(क) पहले जब नायिका मुग्धा थी तो प्रायः मायके चली जाती थी। इसे प्रिय - वियोग का दुःख नहीं होता था। अब वह मध्यावस्था को प्राप्त हो गयी है, अतः इस बार उसे मायके जाने के सुख के साथ-साथ प्रिय विरह का दुःख भी हो रहा है।
(ख) दुर्योधन को यह शाप मिला था कि जब उसको हर्ष और शोक दोनों एक साथ होंगे तब उसकी मृत्यु हो जायेगी। ऐसी अवस्था में ही दुर्योधन की मृत्यु हुई थी।
(ग) मिलन और विरह की ऐसी ही स्थिति में नायिका के प्राण भी संकट में पड़ गये हैं।

 

(5)

लाग्यो सुमनु ह्वै है सफलु आतप-रोसु निवारि।
बारी-बारी आपनी सींचि सुहृदयता- बारि॥ 16॥

शब्दार्थ - सुमनु = सुमन, पुष्प। सफलु = जिसे अपना अभीष्ट प्राप्त हो गया हो, फल युक्त। आतप = ताप, दुःख देने वाला। रोसु = रोष, तीक्षणता, प्रचण्डता। बारी बालिका, अनुभवहीन स्त्री, माली, वाटिका सुहृदयता = मैत्री, प्रेमभाव, उपयोगिता। बारि = वाक्, सरस्वती, वचन, जल।

प्रसंग - नायिका के घर नायक के पधारने का कार्यक्रम है किन्तु वह अभी तक पहुँचा नहीं है। नायिका का मन उसी में रमा हुआ है और नायक के विलम्ब के कारण वह कुछ रुष्ट भी हो रही है। मन बहलाने के लिए वह घर की वाटिका में घूमने लगती है जहाँ माली और कुछ सखियाँ भी उपस्थित हैं। इसी बीच नायिका की अंतरंग सखी, जो नायक के पास गई हुई थी, वापस आकर चातुरी से उपर्युक्त दोहा पढ़ती है ताकि नायिका तो इसका अर्थ समझ ले और माली तथा अन्य सखियाँ यह समझें कि वह वाक्य माली से कह रही है। अतः इस दोहे के दो अर्थ हैं। नायिका के प्रति तथा माली के प्रति।

प्रथम अर्थ - हे भोली-भाली स्त्री, तेरा मन जहाँ लगा है, वहाँ से तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। तू इस दुःखदायी रोष को दूर करके सहृदयता के, मैत्री के जल से, (मधुर वाक्यों से) इसे (इस सम्बन्ध को) सींच, इस सम्बन्ध को माधुर्य से पूर्ण सरस बना।

द्वितीय अर्थ - हे माली ! तेरे उद्यान में जो फूल लगा है, उसमें निश्चय ही फल भी लगेगा। तू अपनी वाटिका को सहृदयता के जल से सींच कर उसे गर्मी के प्रचण्ड प्रभाव से बचा लें।

विशेष-
(क) इस दोहे में बिहारी की वचन-वक्रता देखी जा सकती है।
(ख) यहाँ रूपक तथा श्लेष अलंकारों का प्रयोग हुआ है।

 

(6)

अजौ तऱयोना हीं रह्यौ श्रुति सेवत इक-रंग।
नाक-बास बेसरि लह्यौ बसि मुकुतनु कैं संग॥20॥

शब्दार्थ - अजौ = अभी तक। तरयौना = एक कण्ठा भूषण, नीचे लटकने वाला। श्रुति = वेद, कान। इकरंग = महाअधम प्राणी। मुकुतनु = एक जीवन-मुक्त व्यक्ति, मोती।

प्रसंग - इस दोहे में कवि ने बेसर के वर्णन के माध्यम से श्लेष के द्वारा सतसंग की महिमा का प्रतिपादन किया है। श्लेष के कारण इस दोहे के भी दो अर्थ है।

व्याख्या - आज तक यह 'तरयौना एक ही ढंग से कानों का सेवन करता हुआ। निचले स्थान पर ही बना रहा जबकि 'बेसर ने मोतियों के संग रहकर, नासिका में वास या स्थान प्राप्त कर लिया, उच्च पद प्राप्त कर लिया। 'तरयॉना' कानों का आभूषण हैं जबकि बेसर नाक का आभूषण है, अतः दोनों ने अपने-अपने स्थान पर ही तो रहना है। इस दोहे का दूसरा अर्थ है कि मनुष्य एक ही रीति से श्रुति का, वेद का सेवन करता हुआ (अध्ययन करता हुआ) भी तर नहीं पाया, मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाया किन्तु बेसर जैसा अत्यन्त नीच प्राणी भी जीवन मुक्त सज्जनों के संग रहकर स्वर्ग को पाने में सफल हो गया।

विशेष -
(क) यहाँ मुद्रा अलंकार का सुन्दर रूप में प्रयोग किया गया है।
(ख) श्रेष्ठ पुरुषों की संगति से मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वेदाध्ययन का वैसा फल प्राप्त नहीं होता।

 

(7)

जम-करि-मुँह तरहरि पर्यो, इहिं धरहरि चित लाउ।
विषय-तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ॥ 21॥

शब्दार्थ - जम = यम। करि = हाथी। तरहरि = नीचे। धरहरि = निश्चय। लाड = लगाओ। परिहरि = छोड़कर तृषा = तृष्णा विषय वासनाएँ।

प्रसंग - कवि अपने मन को समझा रहा है। अपने गुरु नरहरिदास के चरणों में भी कवि ने प्रणाम निवेदन किया है।

व्याख्या - कवि स्वयं से या मनुष्य मात्र से कह रहा है कि तू यम रूपी हाथी के मुँह के नीचे पड़ा हुआ है। मौत तेरे सिर पर सवार है। इस बात को अच्छी तरह से समझ ले इस निश्चय पर मन में विचार कर और विषय वासनाओं की तृष्णा को छोड़कर भगवान् नरसिंह के अथवा गुरुवर नरहरिदास के गुणों का गान कर।

विशेष -
(क) यह उपदेशात्मक दोहा है जिसमें विषय-वासनाओं को त्याग कर ईश्वर भक्ति की ओर उन्मुख होने का उपदेश दिया गया है।
(ख) यहाँ रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।

 

(8)

 

 

पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल।
आजु मिले, सु भली करी, भले बने हौ लाल। 22॥

शब्दार्थ - महावरु = पहली तथा प्रतियों के अनुसार यह शब्द उकारांत ठहरता है और चौथी तथा पाँचवीं प्रतियों के अनुसार अकारांत। हमने दूसरी तथा पहली पंक्तियों का अनुसरण करके उसको उकारांत रखा है। 'आजु' (अद्य) अव्यय होएन के कारण यद्यपि इस शब्द के उकारांत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, पर ब्रजभाषा के कवियों ने इसको प्रायः उकारांत ही लिखा है।

प्रसंग - प्रौढ़ा-धीरा-खंडिता नायिका की उक्ति नायक से-

व्याख्या - पलकों में (पान की) पीक, अधर पर अंजन, (तथा) भाल पर महावर धारण किये हुए अर्थात पलकों में अधर रंगने वाली वस्तु, अधर पर पलकों में देने वाली वस्तु एवं भाल पर पैरों में लगाने वाली वस्तु धारण किये हुए। आज (जो तुम) मिले हो, सो अच्छी बात की, (वाहजी वाह !) अच्छे बने हो। इस दोहे में 'भली' तथा 'भले' शब्द व्यंग्यात्मक है।

विशेष - वक्रोष्टि तथा असंगति अलंकार का प्रयोग किया गया है।

 

(9)

तो पर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन कैं उर बसी है उरबसी समान॥ 25॥

शब्दार्थ - उरबसी = उर हृदय में बसी, एक आभूषण उर्वशी नाम की अप्सरा।

प्रसंग - राधाकृष्ण को किसी अन्य स्त्री से अनुरक्त समझती हैं और मान करती हैं। सखी राधा के मान को छुड़ाने के लिए उससे कहती है

व्याख्या - हे चतुर राधिके। सुन, तू इतनी सुन्दर है, मोहिनी है कि किसी और का तो कहना ही क्या, स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी को भी मैं तुझ पर वार दूँ। तू तो मोहन के हृदय में ऐसी बसी हुई है जैसे उरबसी नाम का आभूषण किसी के हृदय पर शोभित हो रहा हो। फिर भला तुझे छोड़कर नायक किसी अन्य को हृदय में कैसे बसा सकता है। एकमात्र तू ही प्रिय जी प्रियतमा है, यह विश्वास रख।

विशेष -
(क) यमक अलंकार का सुन्दर प्रयोग किया गया है।
(ख) दूती द्वारा 'मान' को दूर करने का वर्णन रीतिकाल के कवियों की एक प्रवृत्ति रही है।

 

(10)

नहिं परागु नहिं मधुर मधु नहिं बिकासु इहिं काल।
अली, कली ही सौं बंध्यौ, आगे कौन हवाल॥ 38॥

शब्दार्थ - विकास = खिलना। हवाल = दशा। अलि = भौंरा।

प्रसंग - नायिका पूर्वानुरागिनी है। अपने नेत्रों की दशा का वर्णन वह अपनी सखी से करती है - उस दोहे में बहुत कम आयु की, मुग्धा नायिका पर आसक्त हो रहे नायक को भ्रमर के बहाने से शिक्षा दी गयी है।

व्याख्या - हे भँवरे। जिस कली में न अभी पराग, आया है, न ही मीठा मकरन्द रस आया है, ही वह कली अभी पूरी तरह से खिली है। ऐसी कली से ही तू बँध गया है, जब यह पूर्ण रूप से खिलेगी इसमें जब पराग आयेगा, जब यह रस से भर उठेगी तब तेरा क्या होगा भ्रमर के माध्यम से कवि नायक को कह रहा है कि अभी इस मुग्धा में न तो यौवन का रंग आया है, न इसमें सरसता आयी है, न यौवन के आगमन से होने वाली अंगों में प्रफुल्लता आई है, तू अभी से इसमें लीन हो गया। आगे चलकर जब इसमें यौवन का विकास होगा, अंग-अंग में प्रफुल्लता आयेगी मन में सरसता का संचार होगा, तब तेरी क्या अवस्था बनेगी।

विशेष -
यहाँ अन्योक्ति अलंकार का प्रभावशाली रूप में प्रयोग हुआ है। हिन्दी के अनेक विद्वानों ने इस दोहे को महाराज जय सिंह के जीवन से सम्बन्धित माना है। वह अपनी नवोढ़ा, कम आयु की पत्नी पर इतने आसक्त थे कि राज-काज भी छोड़े बैठे थे तब बिहारी ने यह दोहा लिखकर राजा के पास भेजा था।

(11)

मंगल बिंदु सुरंगु, मुखु ससि, केसरि आजड़ गुरु।
इक नारी लहि संगु, रसमय किय लोचन-जगत॥ 42॥

शब्दार्थ - सुरंग = सुन्दर रंग वाला, लाल। आड़ = आड़ा तिलक। नारी = स्त्री, नाड़ी। रस = अनुराग, श्रृंगार रस, जल। किय = किया। लोचन जगत = लोचन रूपी जगत।

प्रसंग - नायिका के मुख पर लाल बिन्दी तथा केसर की पीली आड़ देखकर नायक की आँखें अनुराग से भर गयी हैं। अपनी इस दशा का वर्णन वह नायिका कि किसी सखी से करता है।

व्याख्या - नायिका के मस्तक पर लाल रंग की बिन्दी लगी हो जो मंगल ग्रह की सूचक है उसका मुख चन्द्रमा के समान है और केसर वृहस्पति का रूप है। इन तीनों ग्रहों- मंगल, चन्द्र, बृहस्पति को एक ही नारी रूपी नाड़ी ने एक साथ प्राप्त करके मेरे (नायक के) लोचन रूपी जगत के अनुराग-मय जल-मय बना दिया है। मेरी आँखों में उस नायिका के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया है।

 

(12)

खेलन सिखए, अलि, भलें चतुर अहेरी मार।
कानन-चारी नैन-मृगु नागर नस्नु सिकार॥ 45॥

शब्दार्थ - भलै = भली-भाँति, विलक्षण। अहेरी = शिकारी। काननचारी = जंगल में विचरने वाले, कानों तक फैली हुई = दीर्घ।

प्रसंग - इस दोहे में नायिका के नेत्रों के विलक्षण प्रभाव का वर्णन किया गया है। सखी नायिका से कह रही है

व्याख्या - हे सखी ! कामदेव रूपी चतुर शिकारी ने तेरे कानों तक फैले हुए वन में विचरण करने वाले, नयन रूपी मृगों को भली प्रकार से विलक्षण रीति से नगर निवासी नरों का शिकार करते हैं। सिखाया है।

विशेष-
(क) नगरवासी लोग वनों में जाकर मृगों का शिकार करते हैं, यह सर्वविदित है किन्तु यहाँ विलक्षण बात यह है कि नयन रूपी मृग नगरवासी नरों का शिकार करते हैं। कामदेव ने यह कला नयन - रूपी मृगों को सिखा दी है।
(ख) यहाँ रूपक तथा श्लेष अलंकारों का प्रयोग किया है। (ग) नायिका के नेत्रों के मादक प्रभाव का वर्णन हुआ है।

 

(13)

कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत गुरु, जग नाइक, जग बाइ॥ 71॥

शब्दार्थ - टेरतु टेरना, पुकारना। जग-बाई- दुनिया की हवा, संसार का दुष्प्रभाव।

प्रसंग - इस दोहे में कविवर बिहारी ने भगवान् कृष्ण को उलाहना दिया है और अपनी दीनता का परिचय दिया है।

व्याख्या - हे श्याम ! मैं न जाने कब से कितने समय से हीनता से, विनय से भरी हुई रट से, तुमको टेर रहा हूँ, पुकार रहा हूँ पर तुम मेरी सहायता नहीं करते। ऐसा लगता है कि हे जगद्गुरु, जगत नायक तुम्हें भी जगत् की हवा लग गई है, संसार के लोगों का तुम पर भी दुष्प्रभाव पड़ गया है। नियमानुसार तो जगद्गुरु, जगन्नायक का ही प्रभाव संसार के लोगों पर पड़ना चाहिए किन्तु यहाँ जगत के निर्दय लोगों के प्रभाव से तुम भी वैसे ही निष्ठुर हो गये थे।

विशेष -
(क) भक्त की दीनता पर भगवान् की निष्ठुरता का वर्णन कवि ने उपालम्भ के रूप में किया है।
(ख) 'जगबाई' मुहावरे का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
(ग) लोकोक्ति तथा उत्परेक्षा अलंकारों का यहाँ प्रयोग किया गया है।

 

(14)

कहति न देवर की कुबत कुल-तिय कलह डराति।
पंजर गत मंजार ढिग सुक ज्यौं सूकति जाति॥ 85॥

शब्दार्थ - कुबत = बुरी बात। पंजर गत = पिंजड़े में पड़े हुए। मंजार = बिल्ला। ढिग = समीप। सुक = तोता। सूकति = सूखती। कलह = झगड़ा।

प्रसंग - देवर अपने भौजाई से अनुचित प्रेम करना चाहता है, सुशीला भाभी बहुत चिन्तित हैं। यदि वह देवर की वास्तविकता अपने पति को नहीं बताती तो देवर अवसर पाकर कभी भी उससे दुराचरण कर सकता है। यदि वह पति को सब कुछ बता देती है तो परिवार में कलह एवं अशान्ति हो जायेगी। भाई-भाई में वैमनस्य फैल जायेगा नायिका की इसी स्थिति का वर्णन एक सखी अपनी सखी से कह रही है।

व्याख्या - वह कुलवधू, परिवार में कलह के डर से, भाई-भाई के बीच झगड़ा न हो जाये, इसी भय से अपने देवर के खोट को, उसकी बुराई को अपने पति से या किसी भी से नहीं करती। इस दुविधा की स्थिति में वह ऐसे सूखती जा रही जैसे कोई पिंजरे में बन्द तोते के पास कोई बिल्ला बैठा हो बिल्ले के भय से तोते का सूखना दुर्बल होना - निश्चित है।

विशेष -
(क) यहाँ उपमा अलंकार है।
(ख) नायिका की दुविधा का प्रभावशाली चित्र अंकित किया गया है।

 

(15)

कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार।
मो संपति जदुपति सदा बिपति-बिदारनहार॥ 61॥

शब्दार्थ - कोरिक (कोटिक) = करोड़ के अनुमान संग्रहों = बटोरो, जोड़ो। लाख (हजार) = दस करोड़॥

प्रसंग - किसी संतोषी भक्त का वचन स्वगत अथवा किसी मित्र से कहता है

व्याख्या - (चाहे) - कोई करोड़ (की संपति) संग्रह करै, (चाहे) कोई दस करोड़ (की), मेरी सम्पत्ति (तो) सदा विपत्ति के विदारण करने वाले मटुपति (श्रीकृष्ण भगवान) हैं। (मुझे) किसी और संपत्ति की कुछ आकांक्षा नहीं॥

विशेष - अनुप्रास रूपक तथा व्यतिरेक अलंकार का प्रयोग हुआ है।

(16)

हेरि हिंडोरें गगन तैं परी परी सी टूटि।
धरी धाइ पिय बीच हीं, करी खरी रस लूटि॥ 66॥

शब्दार्थ - हिंडोरै गगन तैं = हिंडोले रूपी आकाश से॥ परी सी = अप्सरा सी। करी खरी = खड़ी कर दी।

प्रसंग - नवोढ़ा नायिका सखियों के साथ हिंडोला झूल रही थी। इतने में नायक भी वहाँ आ पहुँचा। उसको देखकर नायिका हिंडोले पर से भागने के निमित कूद पड़ी प्रियतम ने फुर्ती से उसे बीच में ही लोक लिया, पृथ्वी पर गिरने नहीं दिया, और आलिंगन का रस लूटकर खड़ी कर दिया। सखी का वचन सखी से -

व्याख्या - (प्रियतम) को देखकर (वह) हिंडोले रूपी आकाश से परी सी टूट पड़ी क्यह देख प्रियतम ने दौड़कर बीच (अधर) ही में ही (उसे) लोक लिया, (गिरने नहीं दिया, और) (रस लूटकर) (आलिंगनादि का सुख लेकर) (उसको पृथ्वी पर) खड़ी कर दिया।

 

(17)

लसतु सेतसारी ढप्यौ, तरल तना कान।
पर्यो मनौ सुरसरि सलिल, रवि प्रतिबिंबु बिहान॥

शब्दार्थ - विहान = प्रातःकाल, लसतु = शोभायमान, तरल = हिलता हुआ, प्रतिबिंबु = परछाई / छाया।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - दूती नायक से नायिका के कंपायमान होने के कारण श्वेत सारी से ढके हुए कर्णाभूषण की छाया का वर्णन कर रही है।

व्याख्या - नायिका के कंप के कारण हिलते हुए कर्णाभूषण (तर्यौना) की गतिशील शोभा की ओर नायक का ध्यान आकृष्ट कराते हुए दूती नायक से कहती है कि उसके कान में हिलता हुआ तना श्वेत साड़ी के आवरण में ढका होने के कारण ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसे प्रातःकालीन सूर्य का हिलता हुआ प्रतिबिम्ब गंगा जी के श्वेत हिलते हुए जल पर पड़ रहा हो। अर्थात् श्वेत साड़ी के आवरण में झिलमिलाता हुआ तर्यौना उसकी छवि को अधिक सुन्दर बना रहा है।

विशेष-
(1) प्रातः कालीन सूर्य का प्रतिबिम्ब गंगा के गतिशील जल पर पड़ने के कारण हिलता हुआ प्रतीत होता है।
(2) उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा, उदाहरण अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
(3) गत्यात्मक सौन्दर्य का वर्णन प्रस्तुत हुआ है।

 

(18)

घाम घरीक निवारियै, कलित ललित अलि-पुंज।
जमुना तीर तमाल तरु मिलित मालती-कुंज॥

शब्दार्थ - घाम = धूप का ताप, घरीक = क्षण भर, निवारिये = शमन कीजिए, कलित = मढ़े हुए, ललित =  सुन्दर।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में नायिका का वाक् चातुर्य दर्शनीय है वो संकेतों द्वारा नायक के समक्ष अपना अभिसार प्रस्ताव प्रकट करते हुए रमणोपयुक्त स्थान भी बता देती है।

व्याख्या - नायिका प्रकारान्तर से नायक को केलि हेतु उपयुक्त स्थान का परिचय देते हुए कहती है कि यमुना के किनारे उस स्थान पर जहाँ तमाल के वृक्ष एक-दूसरे से मिले हुए हैं। अर्थात् अत्यंत पास- पास हैं उस सुन्दर भ्रमरों के समूह से मढ़े हुए मालती के कुंज में विश्राम करके आप इस प्रचंड घाम के कारण उत्पन्न ताप का निवारण कर लीजिए। अर्थात् नायिका नायक से निवेदन करती है कि वह यमुना के किनारे (जहाँ वह जल भरने जाएगी) भ्रमरों के समूह से मढ़े हुए सघन कुंजों के मध्य उसकी प्रतीक्षा करे। घड़ी भर के लिए ताप निवारण से उसका आश्रय प्रेम क्रीड़ा का आनन्द लेकर क्लान्त शरीर व मन को उत्फुल्ल करने से है। वही नायिका तमाल के वृक्षों के सघन कुंज रूपी निर्जन स्थान को प्रणय क्रीड़ा हेतु उपयुक्त बताते हुए नायक से वहाँ आने का आग्रह करती है। इस प्रकार कूट भाषा में वह नायक को अपने प्रेम व प्रणय निवेदन का परिचय दे देती है।

विशेष -
(1) नायिका का वाक् चातुर्य प्रशंसनीय है।
(2) भ्रमरों के समूह से मढ़ित स्थान का बोध कराने से तात्पर्य उस स्थान में जनशून्यता का परिचय देना रहा है क्योंकि निर्जन स्थान पर ही इस तरह भ्रमर पंक्तियाँ गुंजार करती हैं -
(3) 'तमाल तरु मिलत मालती कुंज' कहकर वह नायक का ध्यान स्त्री-पुरुष के परस्पर प्रेमालाप की ओर आकृष्ट करते हुए उसके चित्त में अभिलाषा उत्पन्न करती है।
(4) 'घाम घरीक निवारिये इस वाक्य खंड द्वारा वह अपने यमुना किनारे जल भरने जाने का समय संकेत देती है कि अपराह्न की तेज धूप में प्रायः गलियाँ निर्जन हो जाती हैं अतः यह समय उनकी भेंट हेतु उपयुक्त है।
(5) अलंकार - रूपक, अनुप्रास, ब्याज स्तुति आदि है।
(6) भाषा में लाक्षणिकता का प्रभाव है।

 

(19)

सनु सूक्यौ, धीत्यौ बनौ, ऊखौ लई उखारि।
हरी हरी अरहरि अजै धरि धरहरि जिय, नारि॥

शब्दार्थ - सनु = सन का पौधा, धीत्यौ = दिन बीत गया, बनौ = कपास का, अजै = आज भी, धरहरि = धैर्य।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में सखी अनुशयना नायिका को धैर्य देने का प्रयास कर रही है।

व्याख्या - विविध ऋतुओं में फसल पक जाने के कारण नायक नायिका के भेंट स्थल अर्थात् सन, कपास और ऊख के खेत रिक्त हो चुके हैं। नायक से छिपकर भेंट किए जाने के सभी स्थल अनुकूल न होने के कारण नायिका खिन्न है अतः सखी उसे ढाढ़स बँधाते हुए कहती है कि भले ही सन सूख गया हो (खेत खाली हो गया) तथा कपास का भी दिन बीत चुका है। (फसल पकने पर काट ली गई है अर्थात् खेत रिक्त हो गया है) तथा ऊख के बड़े-बड़े पौधे भी उखाड़ लिए गए हैं (अर्थात् इन खेतों में निहित तुम्हारे प्रणय क्रीडास्थल नष्ट हो चुके हैं) तथापि अरहर अब भी हरी भरी है (अर्थात् तुम उसके खेतों में विहार कर सकती हो) अतः हे नारी ! चिन्ता को त्याग कर हृदय में धैर्य धारण करो क्योंकि तेरे लिए अरहर के खेत में सहेट (छिपकर क्रीड़ा करने का स्थान) बना हुआ है।

विशेष -
(1) सन, कपास तथा ऊख की फसल के बाद अरहर की फसल परिपक्व होती है। अतः कृषि सम्बन्धी बिहारी का ज्ञान प्रकट हुआ है।
(2) सखी नायिका को सान्त्वना देने का प्रयास कर रही है।

 

(20)

पूस मास सुनि सखिनु पैं साई चलतु सवारु।
गहि कर बीन प्रबीन तिय राग्यौ रागु मलारु॥

शब्दार्थ - सवारू = प्रातःकाल, साई = प्रियतम, राग्यौ = अलापना, प्रबीन = दक्ष / कुशल, मलारू = मल्हार राग, बीन = वीणा।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में प्रवस्तस्थ्य प्रेयसी प्रौढ़ा नायिका द्वारा नायक के परदेश गमन (प्रवास) को रोकने की चेष्टा का वर्णन प्रस्तुत हुआ है।

व्याख्या - पौष माह में सखियों द्वारा नायक के प्रातः काल परदेश जाने की सूचना प्राप्त होने पर संगीत विद्या में प्रवीण नायिका हाथ में वीणा लेकर मल्हार राग अलापना प्रारम्भ कर दिया। (आशय यह है कि मल्हार राग के द्वारा वर्षा प्रारम्भ होने पर प्रियतम का जाना स्थगित हो जाएगा, क्योंकि अकाल (असमय) वृष्टि में यात्रा निषिद्ध होती है।) इस प्रकार अपने चातुर्य से वह प्रियतम का जाना रोकने का प्रयास कर रही है।

विशेष -
(1) यह मान्यता है कि मल्हार राग गाए जाने पर तत्काल वर्षा प्रारम्भ हो जाती है।
(2) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
(3) नायिका किसी भी तरह नायक के प्रवास को रोकना चाहती है।

 

(21)

घरू-घरू डोलत दीन है, जनु जनु जाचतु जाई।
दिए लोभ चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई॥

 

शब्दार्थ - चसमा = ऐनक (यह शब्द अरबी भाषा का है), डोलत = घूमते हैं, जातु = माँगना, चखनु = नेत्रों पर, लघु = छोटा, लखाई = दिखाई देता है।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - लोभी मनुष्य की प्रवृत्ति का वर्णन किया है। वह योग्य और अयोग्य प्रवृत्ति को अनदेखा करते हुए सबके सम्मुख दीनतापूर्ण याचना करता रहता है।

व्याख्या - कवि कहते हैं कि लोभी मनुष्य घर-घर घूमते हुए दीन होकर (गिड़गिड़ाते हुए) फिरते हैं। वे जन-जन के सम्मुख जाकर याचना करते रहते हैं। (माँगते रहते हैं) वे इस बात पर भी विचार नहीं करते कि वे जिसके सम्मुख याचना कर रहे हैं वो याचना करने के योग्य महान व्यक्ति है अथवा समीप खड़ा करने के भी योग्य नहीं है। (अर्थात् लघु वृत्ति वाला है) बिहारी कहते हैं कि संभवतः लोभ रूपी चश्में को लगाए रखने के प्रभाववश उसे लघु प्राणी भी बड़ा व महान व्यक्ति प्रतीत होने लगता है। भाव से है कि लोभ व्यक्ति के नेत्रों पर पट्टी बाँध देता है और वह उचित व अनुचित में भेद करने योग्य नहीं रहता।

विशेष -
(1) लोभी प्रवृत्ति वाले मानवों पर कटाक्ष किया गया है।
(2) वक्रोक्ति, रूपक, उपमा, अनुप्रास, उदाहरण अलंकार हैं।
(3) प्रस्तुत दोहा बिहारी के नीति व व्यवहार सम्बन्धी ज्ञान का परिचय देता है।

 

(22)

आवतु जातु न जानियतु, तेजहिं तजि सियरानु।
धरहँ जँवाई लौ घट्यो खरौ पूस दिन मानु॥

शब्दार्थ - सियरानु = मंद या ठंडा पड़ जाना, खरौ = तेज, उग्रता, मानु = सम्मान / प्रभाव, लौ = सदृश।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - पौष मास में दिनों के छोटे होने तथा सूर्य की तीव्रता के मंद हो जाने का वर्णन ससुराल में रहने वाले जमाता के उदाहरण द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या - पौष मास के आने पर दिन का माप (लम्बाई / प्रतिष्ठा) घर जमाई (ससुराल में रहने वाले) की भाँति इस प्रकार घट गया है (ठंडा पड़ गया / तेज हीन हो गया) है कि अब उसका आना और जाना (कब उदित हुआ / कब अस्त हो गया) लोगों को प्रतीत नहीं हो पाता अर्थात् वे जान नहीं पाते कि कब सूर्य निकला और कब अस्त्र हो गया है। अपना तेज (ऊष्णता / स्वभाव की उग्रता) त्याग कर वह ठण्डा (शीतल / नम्र) हो गया है। दिन कब ढल जाता है, इसका पता ही नहीं चलता, आशय यह है कि श्वसुर गृह में निवास करने वाले व्यक्तिका स्वाभिमान व अकड़ पूस मास के सूर्य की भाँति ही कम हो जाती है।

विशेष -
(1) पौष मास के सूर्य की मंदता तथा दिनों की लम्बाई घटने को घर जमाई के सम्मान उत्तरोत्तर घत्ते जाने की प्रक्रिया के साथ जोड़कर सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है।
(2) कवि की कल्पना की समाहार शक्ति प्रशंसनीय है।
(3) कहा जाता है कि बिहारी ने भी घर जमाई के रूप में रहकर श्वसुर गृह में समय व्यतीत किया था। यह दोहा उनके स्वयं के अनुभव की अभिव्यक्ति प्रतीत होता है।
(4) अलंकार पूर्णोपमा, वक्रोक्ति, अनुप्रास है।

 

(23)

दुरत न कुच बिच कंचुकी चुपरी, सारी सेत।
कवि - आँकनु के अरथ लौ, प्रगटि दिखाई देत॥

शब्दार्थ - दुरत = दिखाई देते, कंचुकी = अँगिया, सेत= श्वेत, चुपरी = चोवा आदि से चुपड़ी हुई, आँकनु = अक्षरों।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - अंकुरित यौवना के कुचों के अस्पष्टता के साथ झलकने का वर्णन प्रस्तुत हुआ है।

व्याख्या - कवि किशोरावस्था तथा वयःसन्धि के द्वार पर प्रवेश करती नायिका के विकसित होते हुए कुचों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि चोवा इत्यादि से चुपड़ी हुई चोली / अँगिया तथा श्वेत साड़ी में अब वयःसन्धि की अवस्था में प्रवेश कर रही युवती के उभार स्पष्ट झलक देते हैं (अर्थात् नहीं छिपते) भाव यह है कि ध्यानपूर्वक देखे जाने पर वे कवि के अक्षरों में निहित अर्थ की भाँति स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाते हैं। आशय यह है कि यद्यपि नायिका के उरोज अभी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुए हैं वे साड़ी के आवरण में छिपे रहते हैं परन्तु जिस प्रकार अत्यन्त ध्यान से एकाग्रता के साथ पढ़ने पर कवि की कविता में अक्षरों में छिपा गढ़ार्थ प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार ध्यान से देखने पर युवती के कुचों की स्पष्ट झलक उद्भाषित हो जाती है।

विशेष -
(1) वयःसन्धि की ओर बढ़ती नवयौवना के कुचों के सौन्दर्य का वर्णन हुआ है।
(2) रीतिकालीन परिपाटी पर नायिका के माँसल सौन्दर्य का चित्रण है।
(3) अनुप्रास, उल्लेख, उदाहरण अलंकार हैं।

 

(24)

तजि तीरथ, हरि राधिका तन दुति करि अनुरागु।
जिहि ब्रज केलि निकुंज मग पग पग होतु प्रयागु॥
शब्दार्थ - तजि = छोड़कर, अनुरागु = प्रेम, मग = मार्ग।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में बिहारी कृष्ण राधा की भक्ति रस में डूबकर उसके सम्मुख तीर्थाटन की महिमा को भी तुच्छ बता रहे हैं।

व्याख्या - बिहारी भक्त कवि के रूप में प्राणी मात्र को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे जीव ! तीर्थों में उत्तरोत्तर भ्रमण छोड़कर श्री कृष्ण और राधा रानी के सुन्दर रूप की कान्ति का स्मरण करते हुए उसमें अपना मन लगा। राधा-कृष्ण की लीलास्थली ब्रज के विहार निकुंजों के मार्ग में तो पग पग पर प्रयाग प्रकट हो जाता है। आशय यह है कि ब्रजभूमि की कुंजों के मार्ग पर चरण रखने मात्र से ही तीर्थराज प्रयाग में अवगाहन का पुण्य प्राप्त हो जाता है। अतः ब्रज की पुण्य भूमि पर विचरण करने से ही समस्त तीर्थों के पुण्यों का फल मिल जाता है।

विशेष-
(1) बिहारी प्रकारान्तर से यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि श्री कृष्ण के श्याम वर्ण से यमुना, राधा के गौर वर्ण से गंगा तथा उनके अनुराग के रक्तिम वर्ण द्वारा सरस्वती की अनुभूति होने के कारण ही ब्रजमंडल उनके संगम का साक्षी बनकर तीर्थराज प्रयाग के पुण्य फल का प्रदाता बन जाता है।
(2) कवि की कल्पना समाहार शक्ति एवं वर्ण संयोजन का वाक् चातुर्य प्रकट हुआ है।
(3) बिहारी कृष्ण भक्त कवि थे अतः उनकी प्रवृत्ति श्रीकृष्ण के लीला विहार में आसक्ति प्रकट करने की रही है। यही कारण है कि वे राधा-कृष्ण की युगलोपासना को तीर्थाटन से श्रेष्ठ सिद्ध कर रहे हैं।
(4) वक्रोक्ति, अनुप्रास, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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